भगवान बुद्ध ने सात धन बताए हैं.
रुपये पैसे, सोना चांदी, हीरे जवाहरात आदि को भगवान बुद्ध ने असली धन नहीं बताया है. ये धन तो समय के साथ-साथ नष्ट होते रहते हैं. असली सात धन अलग ही हैं. आओ इनके बारे में जानते हैं:------
1. श्रद्धा धन:------
बुद्ध के प्रति श्रद्धा, धर्म के प्रति श्रद्धा, संघ के प्रति श्रद्धा.
विपश्यना विद्या सीखकर अपनी स्वयं की बोधि जगाकर शुद्ध धर्म के मार्ग आर्य आष्टांगिक मार्ग पर चलते हुए लगातार अपने भीतर के विकारों के साथ संघर्ष करते हुए आगे बढ़ रहे हैं तो बुद्ध के प्रति, धर्म के प्रति, संघ के प्रति श्रद्धा दिनों दिन बढ़ती जाती है. इस तरह से श्रद्धा धन बढ़ता जाता है. यही असली श्रद्धा धन है.
2. शील धन:-----
पांच शीलों का लगातार पालन करने का प्रयत्न करते हैं यानि किसी प्राणी की जानबूझकर हत्या नहीं करते, चोरी नहीं करते, व्यभिचार नहीं करते (यानि केवल अपनी पत्नी या पति के साथ ही संसर्ग करते हैं, अगर शादीशुदा नहीं हैं तो ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं), झूठ नहीं बोलते, किसी तरह का नशा पता नहीं करते हैं तो यह शील धन लगातार बढ़ता जाता है और हम शीलों में पुष्ट होते जाते हैं. यही असली शील धन है.
3. ह्री धन(लज्जा धन):--------
इसका अर्थ है कि हमारे मन में लगातार पाप के विचार आते रहते हैं. हम अपने मन को विपश्यना साधना के द्वारा नियंत्रण में कर लेते हैं और इन पाप के विचारों को शरीर के द्वारा घटित नहीं होने देते और मन में ही उनको समाप्त कर देते हैं. हम विपश्यना साधना के अभ्यास से अपना भला बुरा अच्छी तरह समझने लगते हैं और कोई पाप का विचार आता है तो हमें स्वयं पर लज्जा आती है और उस विचार को मन में ही समाप्त कर लेते हैं तथा लज्जा धन को लगातार बढ़ाते जाते हैं. यही धन ह्री धन (लज्जा धन) कहलाता है.
4. पाप भीरुता धन:------
विपश्यना साधना के अभ्यास से मन नियंत्रण में हो जाता है और हमें पाप कर्मों के परिणाम का भी पूरा ज्ञान हो जाता है. अत: हम सहज ही शीलों का पालन करने लगते हैं. इसके कारण हमें पाप कर्म करने से डर लगता है और हम अपने आप को पाप कर्म करने से दूर कर लेते हैं. इस तरह से लगातार यह धन बढ़ता जाता है. यही पाप भीरुता धन कहलाता है.
5. श्रुत धन:-------
शुद्ध धर्म की वाणी सुनना या पढ़ना और फिर उसका पालन करना श्रुत धन कहलाता है. लगातार धर्म की वाणी पढ़ने से और सुनने से इसमें निरन्तर वृद्धि होती जाती है.
6. त्याग धन:-------
अपने पास जो रुपए पैसे हैं, वस्त्र हैं, भोजन सामग्री है या अन्य तरह की वस्तुएं हैं उनका कुछ भाग लगातार दूसरे लोगों को देते हैं यानि लगातार दान करते हैं तो यह त्याग धन कहलाता है. विपश्यना शिविरों में हम दान देकर यह धन लगातार बढ़ाते जाते हैं.
7. प्रज्ञा धन:------
विपश्यना साधना सीखकर अपना प्रत्यक्ष ज्ञान जगाते हैं और लगातार इसका अभ्यास करते हैं तो हमारी प्रज्ञा लगातार प्रखर होती है यानि बढ़ती जाती है. इसी को प्रज्ञा धन कहते हैं. विपश्यना शिविरों में यह धन बढ़ता जाता है और यह एक पारमी भी है. पारमी पूरी होने पर हम सभी विकारों से मुक्त हो जाते हैं और अर्हंत बन जाते हैं.
यही सातों धन असली धन हैं. सांसारिक धन तो आता जाता रहता है. हमें इन्हीं असली धनों को प्राप्त करने का (बढ़ाने का) लगातार प्रयत्न करना चाहिए.

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